
दोस्तों आज हमलोग Akshay Tritiya के बारे में सबकुछ जानेंगे जैसे , अक्षय तृतीया का महत्व,इस दिन कौन-कौन से इष्टदेवों की पूजा की जाती है।, इस दिन कौन कौन सी वस्तुएं दान देनी चाहिए? अक्षय तृतीया के दिन क्या नहीं करना चाहिए? एवं अक्षय तृतीया की सम्पूर्ण पूजन विधि:-तो आईये जानते है।
अक्षय तृतीया – Akshay Tritiya
भारतवर्ष में प्रतिदिन कोई ना कोई उत्सव, त्यौहार व् जयंती के रूप में मनाया जाता है परंतु ऐसे प्रमुख उत्सव कम ही होते हैं जिन्हें बड़े धूमधाम से मनाया जाता है अक्षय तृतीया भी उनमें से एक उत्सव है यह महोत्सव संपूर्ण देश में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन दान करने का विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन दिया गया दान आप के घर में सुख संपदा का कारक बनता है। यह तिथि सभी शुभ कार्यों को संपन्न करने के लिए अत्यंत शुभ मानी गई है। वैवाहिक कार्यक्रम, धार्मिक अनुष्ठान, ध्यान, योग, व्यापार, जप-तप और पूजा-पाठ हेतु अक्षय तृतीया का उपयुक्त समय होता है। इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व होता है। इस दिन किया गया दान का पुण्य लाभ अक्षय माना गया है जो कभी नष्ट नहीं होती हैं।
आखिर Akshay Tritiya उत्सव है क्या?
प्रत्येक वर्ष विशाखा माह के शुक्ल पक्ष के तृतीया के दिन रेवती नक्षत्र में सर्वाधिक शुभ फल देने वाला योग बनता है इस दिन का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है इसीलिए इसे अक्षय तृतीया कहा गया है क्योंकि अक्षय का अर्थ ही होता है जिसका क्षय ना हो अर्थात इस दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं उसका पुणे चिरकाल तक रहता है। इस दिन का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि विष्णु भगवान के छठवें अवतार परशुराम भगवान का जन्म हुआ था। अक्षय तृतीया से संबंधित समस्त जानकारी हम अपने पाठकों को प्रमाणिकता से उपलब्ध करा रहे हैं ताकि वे इस दिन के महत्व को समझ कर इस पुण्यतिथि का लाभ उठाएं।
Akshay Tritiya का इतिहास क्या है?
अक्षय तृतीया तिथि का जो महत्व आज हमें दिखाई देता है उसका प्राचीन काल में भी अत्यंत महत्त्व था अक्षय तृतीया से संबंधित अनेक कथाएं एवं गाथाएं प्रचलित हैं आज हम उन्हीं के विषय में चर्चा करेंगे।
1. महान वैश्य धर्मदास की कथा:-
अक्षय तृतीया से संबंधित कथाओं में एक कथा के अनुसार एक युग में ईमानदार व जनसेवक धर्मदास नामक वैश्य था। वह हमेशा यथाशक्ति अनुसार लोगों की सहायता के लिए तत्पर रहता था। वह सदाचार, साधु-सन्तों, देवों और ब्राह्मणों के प्रति अत्यंत श्रद्धा थी। एक समय अक्षय तृतीया के व्रत को साधु संतों से सुना। इस व्रत के महात्म्य को सुनने के पश्चात उसने इस पर्व करने हेतु मन में संकल्प लिया। घर आने के बाद गंगा में स्नान करके विधिपूर्वक सभी देवी-देवताओं की विधिवत पूजा की, व्रत के दिन स्वर्ण, वस्त्र तथा दिव्य वस्तुएँ सच्चे ब्राह्मणों एवम् गरीबों को दान दिया। धर्मदास उस समय अनेक आधि व्याधि रोगों से ग्रस्त था। वह वृद्ध होने के उपरांत भी उसने उपवास करके धर्म-कर्म और दान पुण्य किया। अपने इस पुण्य के प्रभाव से वैश्य दूसरे जन्म में कुशावती नामक राज्य का राजा बना।
ऐसा कहा जाता है कि वह अक्षय तृतीया के दिन किया हुआ पुण्य कार्य के कारण ही वह महान एवं तेजस्वी रूप में जन्म लिया। उसके प्रताप से ही वह अत्यंत धनी और प्रतापी बना। वह संसार की समस्त सुख-सुविधाओं व भौतिकता से संपन्नता था कि तीनो लोको के स्वामी त्रिदेव तक उसके निवास स्थान में आकर ब्राह्मण का वेष धारण करके उसके महायज्ञ में अक्षय तृतीया तिथि में सम्मिलित होते थे। धर्मदास सब भौतिक वस्तुओं से संपन्न, वैभवशाली होने के बावजूद किसी प्रकार कि हम की भावना नहीं थी वह हमेशा दीन दुखियों की सेवा में लगा रहता था और भगवान के प्रति श्रद्धा और विश्वास बनाए रखता था वह धर्म के मार्ग से कभी भी विचलित नहीं हुआ। कई पुराणों में ऐसी व्याख्या मिलती है कि यही वैश्य धर्मदास अगले जन्म में चंद्रगुप्त राजा के रूप में जन्म लिए और महानता के शिखर को प्राप्त किया।
Akshay Tritiya का आखिर इतना महत्व क्यों है?
अक्षय तृतीया अपने आप में एक महत्वपूर्ण पर्व है इस दिन ऐसे नक्षत्र योग तिथि का संयोग होता है, कि उत्कृष्ट मुहूर्त निर्मित होता है। आज के दिन बिना किसी पंचांग के मुहूर्त देखे बिना प्रत्येक शुभ कार्य किए जाने प्रारंभ हो जाते हैं।
Akshay Tritiya का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है। मांगलिक कार्यों में खरीदारी गृहप्रवेश आभूषण की खरीदारी शादी वाहन खरीदी, अनुष्ठान यज्ञ दान पुण्य आदि कर्म किए जाते हैं। आज के दिन हिंदुओं द्वारा पवित्र वस्त्र आभूषण धारण कर भगवान की पूजा आराधना की जाती है। धित कार्य किए जा सकते हैं।
अनेक उद्योगों संस्थाओं की भी पूजा का विधान है। इस प्रकार की कर्म करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। अक्षय तृतीया के दिन पितरों को तर्पण देने से पित्र ऋण से उऋण होने का अवसर प्राप्त होता है। जब तक करने के बाद आज आप भगवान से आशीर्वाद वह वरदान की कामना भी कर सकते हैं भगवान सबके हितों को पूरा करने वाले हैं आज के दिन गुरुओं की भी पूजा का प्रावधान है स्वाध्याय करने वाले सभी विद्यार्थी द्वारा भी पूजा की जाती है।
Akshay Tritiya से संबंधित एक और कथा विष्णु के छठे अवतार परशुराम भगवान से संबंधित है। इस प्रसङ्ग का उल्लेख स्कंद पुराण व् भविष्य पुराण में मिलता है। इसी अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु ने छठवे अवतार के रूप में परशुराम के रूप में जन्म लिया। भारतवर्ष के समस्त क्षेत्रों में स्थापित परशुराम मंदिरों में इस तिथि को परशुराम जयंती बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। दक्षिण भारत के क्षेत्रों में परशुराम जयंती को अत्यंत विशेष महत्व दिया जाता है।
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परशुराम जयंती के आविर्भाव की विस्तृत कथा भी हिंदुओं द्वारा सुनी जाती है। अक्षय तृतीय के दिन भगवान परशुराम जी की विशेष पूजा करके उन्हें अर्घ्य दिया जाता है। इसका अत्यंत विशेष माहात्म्य माना जाता है। भारत के सभी राज्यों में सौभाग्यवती स्त्रियाँ और क्वारी कन्याएँ गौरा-गौरी विवाह के साथ गौरी-पूजा करके मिठाई, फल और कच्चे चने प्रसाद के रूप में बाँटती हैं, सम्पूर्ण विधि से गौरी-पार्वती की पूजा अर्चना के रूप में धातु या मिट्टी के कलश में जल,दीप, घड़ा, फल, फूल, तिल, सत्तू, अन्न आदि लेकर दान करती हैं। मान्यता है कि इसी दिन गुरुओं के गुरु, पापियों के संघारक, जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय भृगुवंशी परशुराम भगवान का जन्म हुआ था।
एक पौराणिक गाथा के अनुसार एक समय अनुष्ठान पश्चात् परशुराम की माता और विश्वामित्र की माता को प्रसाद देते समय ऋषि ने प्रसाद बदल कर दे दिया था। जिसके प्रभाव से परशुराम भगवान ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के हो गए थे एवम् क्षत्रिय पुत्र होने के बाद भी विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। क्षत्रियों के अत्याचार को रोकने के लिए कई बार युद्ध किया और जीते। आगे चलकर उल्लेख मिलता है कि सीता माता के स्वयंवर के दौरान परशुराम जी श्री राम जी भगवान स्वरूप जानकर अपना धनुष बाण को समर्पित कर संन्यासी का जीवन बिताने आरण्य की ओर चले गए। भगवान परशुराम शिव के द्वारा दिया गया फरसा हमेशा अपने पास रखते थे, इसलिये उनका नाम परशुराम भगवान पड़ा।
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इस दिन कौन-कौन से इष्टदेवों की पूजा की जाती है।
अक्षय तृतीया के दिन मुख्य रूप से विष्णु एवं लक्ष्मी जी की पूजा का विशेष महत्व है साथ ही महाकाल शिव एवं पार्वती माता की भी आराधना का उल्लेख मिलता है। इसके साथ ही अन्य देवी-देवताओं की आराधना भी की जाती है।
Akshay Tritiya के दिन कौन कौन सी वस्तुएं दान देनी चाहिए?
अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मणों संतों एवं एवं गरीबों को दान देने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है दान के रूप में दी गई वस्तुओं से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है दान के रुप में Akshay Tritiya के दिन जौ, गेहूं, सत्तू, ककड़ी, चनादाल, गुड, वस्त्र, घड़ा, पंखा, ऋतुफल, नारियल, अन्न, स्वर्ण दान, गौ दान आदि का विशेष महत्व है। जिनके पास उपलब्ध ना हो वह यथाशक्ति जो भी वस्तु दान देने का मन हो दे सकते हैं।
Akshay Tritiya के दिन क्या नहीं करना चाहिए?
अक्षय तृतीया बहुत ही स्वयं सिद्धि योग होता है इस दिन अनेक बातों का ध्यान रख अत्यंत आवश्यक है हमें किसी भी प्रकार की हिंसा अत्याचार या दुराचार करने से बचना चाहिए। इस दिन जो कोई ऐसा करता है वह नर्क गामी का पात्र होता है। अक्षय तृतीया के दिन सेंधा नमक संबंधी व्रत को निषेध किया गया है।
द्रोपती को आखिर क्यों मिला अक्षय पात्र ?
एक कथा के अनुसार जब पांडवों को 13 वर्ष का वनवास हुआ उस समय हस्तिनापुर में दुर्वासा ऋषि का आगमन हुआ। उनके सत्कार के लिए सभी कौरव वंश के लोग उपस्थित हुए दुर्योधन ने पांडवों को श्रापित करने के शड़यंत्र के रूप में दुर्वासा ऋषि को पांडवों के आश्रम में भेजने का प्रयत्न किया। दुर्वासा ऋषि अन्य गण के साथ जब पांडवों के आश्रम के समीप पहुंचे तो युधिष्ठिर ने उन्हें देखकर दंडवत प्रणाम किया और सत्कार हेतु अपने आश्रम में आने का निवेदन किया दुर्वासा ऋषि ने कहा कि वे नदी स्नान कर आएंगे।
पांडवों सहित सभी भोजन कर चुके थे, इसलिए नहीं बचा था उसी समय कृष्ण भगवान आते हैं और द्रोपति से भोजन की मांग करते हैं, भोजन के पात्र में केवल एक दाना बचा रहता है उसे देखकर कृष्ण भगवान उसे ग्रहण कर लेते हैं। और उनके ग्रहण करने के पश्चात सभी ऋषि गणों का मन तृप्त हो जाता है, उन्हें भोजन की प्राप्ति स्वतः ही हो जाती है। जब वे स्नान पश्चात पांडवों के आश्रम में आते हैं तो वह स्वतः ही उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं और आशीर्वाद के रूप में अक्षय पात्र दुर्वासा ऋषि द्वारा प्रदान किया जाता है। इसकी विशेषता यह थी कि इसमें कभी भी अन्न समाप्त नहीं होता था। अक्षय तृतीया के दिन को अन्नपूर्णा माता के रूप में भी मनाया जाता है।
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Akshay Tritiya की सम्पूर्ण पूजन विधि:-

अक्षय तृतीया के दिन शुभ मुहूर्त में उठकर तालाब नदी या घर में स्नान करने के पश्चात समस्त पूजन सामग्री इकट्ठा कर भगवान का स्मरण करते ही में ध्यान पूजन करना चाहिए। सर्वप्रथम सभी अपने देवी देवताओं पितरों आदि का स्मरण करता हुआ उनका आवाहन करें । संक्षिप्त पूजन विधि इस प्रकार है:-
पवित्रकरण
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः।।
पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं ।
आसन
निम्न मंत्र से अपने आसन पर उपरोक्त तरह से जल छिड़कें-
पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम्।
ग्रंथि बंधन
यदि यजमान सपत्नीक बैठ रहे हों तो निम्न मंत्र के पाठ से ग्रंथि बंधन या गठजोड़ा करें-
यदाबध्नन दाक्षायणा हिरण्य(गुं)शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।
तन्म आ बन्धामि शत शारदायायुष्यंजरदष्टियर्थासम्।
आचमन करें
इसके बाद दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें व तीन बार कहें-
ऊँ केशवाय नमः ऊँ नारायणाय नमः
ऊँ माधवाय नमः
यह मंत्र बोलकर हाथ धोएं
ऊँ गोविन्दाय नमः हस्तं प्रक्षालयामि । स्वस्तिवाचन मंत्र
सबसे पहले स्वस्तिवाचन किया जाना चाहिए।
स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्ताक्र्षयो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। द्यौः शांतिः अंतरिक्षगुं शांतिः पृथिवी शांतिरापः
शांतिरोषधयः शांतिः। वनस्पतयः शांतिर्विश्वे देवाः
शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वगुं शांतिः शांतिरेव शांति सा
मा शांतिरेधि। यतो यतः समिहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शंन्नः कुरु प्राजाभ्यो अभयं नः पशुभ्यः। सुशांतिर्भवतु। अब सभी देवी-देवताओं को प्रणाम करें-
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः ।
उमा महेश्वराभ्यां नमः ।
वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
शचीपुरन्दराभ्यां नमः ।
मातृ-पितृचरणकमलेभ्यो नमः ।
इष्टदेवताभ्यो नमः ।
कुलदेवताभ्यो नमः ।
ग्रामदेवताभ्यो नमः ।
वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
स्थानदेवताभ्यो नमः ।
सर्वेभ्योदेवेभ्यो नमः ।
सर्वेभ्यो ब्राह्मणोभ्यो नमः।
सिद्धि बुद्धि सहिताय श्री मन्यहा गणाधिपतये नमः।
नवग्रहों का पूजन का मंत्र-
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च गुरुश्च शुक्रः शनि राहुकेतवः सर्वेग्रहाः शांतिकरा भवन्तु।
इस मंत्र से नवग्रहों का पूजन करें।
अब कलश में वरुण देव का पूजन करें। दीपक में अग्नि देव का पूजन करें। कलश पूजन-
कलशस्य मुखे विष्णु कंठे रुद्र समाश्रिताः मूलेतस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मात्र गणा स्मृताः। कुक्षौतु सागरा सर्वे सप्तद्विपा वसुंधरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदो सामगानां अथर्वणाः अङेश्च सहितासर्वे कलशन्तु समाश्रिताः।
ऊँ अपां पतये वरुणाय नमः।इस मंत्र के साथ कलश में वरुण देवता का पूजन करें।
पूजा सफेद कमल अथवा सफेद गुलाब या पीले गुलाब से करना चाहिये।
“ सर्वत्र शुक्ल पुष्पाणि प्रशस्तानि सदार्चने।
दानकाले च सर्वत्र मंत्र मेत मुदीरयेत्॥
दीपक-
दीपक प्रज्वलित करें एवं हाथ धोकर दीपक का पुष्प एवं कुंकु से पूजन करें-
भो दीप देवरुपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविन्घकृत ।
यावत्कर्मसमाप्तिः स्यात तावत्वं सुस्थिर भवः। कथा-वाचन और आरती-
ॐ जय जगदीश हरे…
अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥
शुक्लाम्बर धरम देवम शशिवर्णम चतुर्भुजम, प्रसन्नवदनम ध्यायेत सर्व विघ्नोपशांतये।।” इस मन्त्र से तुलसी दल चढाएं।
फूल चढ़ाए “माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो। मया ह्रितानि पुष्पाणि पूजार्थम प्रतिगृह्यताम।।” मन्त्र का उच्चारण करें।
पंचामृतम मयानीतम पयो दधि घृतम मधु शर्करा च समायुक्तम स्नानार्थम प्रति गृह्यताम।।”
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